प्रत्याशा (कहानी-संग्रह)
पहली बार अपनी लिखी पुस्तक हाथ में लेना हमेशा आह्लादित करता है। कुछ विलम्ब के बाद, कल हिंद युग्म द्वारा भेजा पार्सल मिला और उसमें अपनी प्रतियाँ! कई बार पन्ने पलटे, अपना नाम देखा, कहानियों के शीर्षक पर नज़र दौड़ाई, लेकिन कुछ पढ़ने की हिम्मत नहीं हुई कि कहीं कोई ग़लती ना मिल जाए। मैं जितनी बार अपना लिखा पढ़ती हूँ, उसे एडिट करने बैठ जाती हूँ। हर बार लगता है जैसे यह पंक्ति या वह कहानी बेहतर लिखी जा सकती है, और कुछ ना कुछ संशोधन करने में फिर हफ़्तों बीत जाते हैं। इसलिए छपी हुई पुस्तक पढ़ने में हमेशा डर लगता है क्योंकि अब किसी बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं। बहरहाल, यही प्रार्थना है कि जितने भी पाठक मेरी कहानियाँ पढ़ सकें, उन्हें मेरी पुस्तक पसंद आए।
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